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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ।।11।।
योगीजन केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति त्यागकर आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं। जब कर्म ब्रह्म में विलीन हो चुके तो क्या अब भी आत्मा अशुद्ध ही है? नहीं, वे ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ हो चुके हैं। सम्पूर्ण प्राणियों में वे अपनी ही आत्मा का प्रसार पाते हैं। उन समस्त आत्माओं की शुद्धि के लिये, आप सबका मार्गदर्शन करने के लिये वे कर्म में बरतते हैं। शरीर, मन, बुद्धि तथा केवल इन्द्रियों से वह कर्म करता है, स्वरूप से वह कुछ भी नहीं करता, स्थिर है। बाहर से वह सक्रिय दिखायी देता है; किन्तु भीतर उसमें असीम शान्ति है। रस्सी जल चुकी, मात्र ऐंठन (आकार) शेष है, जिससे बँध नहीं सकता।
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