यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 255

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।3।।


महाबाहु अर्जुन! जो न किसी से द्वेष करता है, न किसी की आकांक्षा करता है वह सदैव संन्यासी ही समझने योग्य है। चाहे वह ज्ञानमार्ग से या निष्काम कर्ममार्ग से ही क्यों न हो। राग, द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित वह पुरुष सुखपूर्वक भवबन्धन से मुक्त हो जाता है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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