यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 245

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।


श्रद्धावान् तत्पर तथा संयतेन्द्रिय पुरुष ही ज्ञान प्राप्त कर पाता है। भावपूर्वक जिज्ञासा नहीं है तो तत्त्वदर्शी की शरण जाने पर भी ज्ञान नहीं प्राप्त होता। केवल श्रद्धा ही पर्याप्त नहीं है, श्रद्धावान शिथिल प्रयत्न भी हो सकता है। अतः महापुरुष द्वारा निर्दिष्ट पथ पर तत्परता से अग्रसर होने की लगन आवश्यक है। इसके साथ ही सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम अनिवार्य है। जो वासनाओं से विरत नहीं है, उसके लिये साक्षात्कार (ज्ञान की प्राप्ति) कठिन है। केवल श्रद्धावान्, आचरणरत सयंतेन्द्रिय पुरुष ही ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त कर वह तत्क्षण परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है, जिसके पश्चात् कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। यही अन्तिम शान्ति है। फिर वह कभी अशान्त नहीं होता। और जहाँ श्रद्धा नहीं है-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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