यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 242

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।36।।


यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है, तब भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा सभी पापों से निःसन्देह भली प्रकार तर जायेगा। इसका आशय आप यह न लगा लें कि अधिक-से-अधिक पाप करके कभी भी तर जायेंगे। श्रीकृष्ण का आशय मात्र यही है कि कहीं आप भ्रम में न रहें कि ‘हम तो बड़े पापी हैं’, ‘हमसे पार नहीं लगेगा’- ऐसी कोई गुंजाइश न निकालें, इसलिये श्रीकृष्ण प्रोत्साहन और आश्वासन देते हैं कि सब पापियों के पापों के समूह से भी अधिक पाप करनेवाला हो, फिर भी तत्त्वदर्शियों से प्राप्त ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापों को अच्छी प्रकार पार कर जायेगा। किस प्रकार?-


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः