यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 240

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।34।।

इसलिये अर्जुन! तू तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर भली प्रकार प्रणत होकर (दण्डवत्-प्रणाम, करके, अहंकार त्यागकर, शरण होकर) भली प्रकार सेवा करके, निष्कपट भाव से प्रश्न करके तू उस ज्ञान को जान। वे तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन तेरे लिये उस ज्ञान का उपदेश करेंगे, साधना-पथ पर चलायेंगे। समप्रित भाव से सेवा करने के उपरान्त ही इस ज्ञान को सीखने की क्षमता आती है। तत्त्वदर्शी महापुरुष परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन करनेवाले हैं। वे यज्ञ की विधि-विशेष के ज्ञाता हैं और वही आपको भी सिखायेंगे। यदि अन्य यज्ञ होता, तो ज्ञानी-तत्त्वदर्शी की क्या आवश्यकता थी?

स्वयं भगवान के सामने ही तो अर्जुन खड़ा था, भगवान् उसे तत्त्वदर्शी के पास क्यों भेजते हैं? वस्तुतः श्रीकृष्ण एक योगी थे। उनका आशय है कि आज तो अनुरागी अर्जुन मेरे समक्ष उपस्थित है, भविष्य में अनुरागियों को कहीं भ्रम न हो जाय कि श्रीकृष्ण तो चले गये, अब किसी शरण जायँ? इसलिये उन्होंने स्पष्ट किया कि तत्त्वदर्शी के पास जाओ। वे ज्ञानीजन तुझे उपदेश करेंगे। और-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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