यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 24

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।30।।

हाथ से गाण्डीव गिरता है, त्वचा भी जल रही है। अर्जुन को ज्वर-सा हो आया। संतप्त हो उठा कि यह कैसा युद्ध है जिसमें स्वजन ही खड़े हैं? अर्जुन को भ्रम हो गया। वह कहता है - अब मैं खड़ा रह पाने में भी अपने को असमर्थ पा रहा हूँ, अब आगे देखने की सामथ्र्य नहीं है।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।31।।

हे केशव! इस युद्ध का लक्षण भी विपरीत ही देखता हूँ। युद्ध में अपने कुल को मारकर परम कल्याण भी नहीं देखता हूँ। कुल को मारने से कल्याण कैसे होगा?

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।32।।

सम्पूर्ण परिवार युद्ध के मुहाने पर है। इन्हें युद्ध में मारकर विजय, विजय से मिलने वाला राज्य और राज्य से मिलने वाला सुख अर्जुन को नहीं चाहिये। वह कहता है- कृष्ण! मैं विजय नहीं चाहता। राज्य तथा सुख भी नहीं चाहता। गोविन्द! हमें राज्य या भोग अथवा जीवन से भी क्या प्रयोजन है? क्यों? इस पर कहता है-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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