विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायगाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते। हाथ से गाण्डीव गिरता है, त्वचा भी जल रही है। अर्जुन को ज्वर-सा हो आया। संतप्त हो उठा कि यह कैसा युद्ध है जिसमें स्वजन ही खड़े हैं? अर्जुन को भ्रम हो गया। वह कहता है - अब मैं खड़ा रह पाने में भी अपने को असमर्थ पा रहा हूँ, अब आगे देखने की सामथ्र्य नहीं है। निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। हे केशव! इस युद्ध का लक्षण भी विपरीत ही देखता हूँ। युद्ध में अपने कुल को मारकर परम कल्याण भी नहीं देखता हूँ। कुल को मारने से कल्याण कैसे होगा? न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। सम्पूर्ण परिवार युद्ध के मुहाने पर है। इन्हें युद्ध में मारकर विजय, विजय से मिलने वाला राज्य और राज्य से मिलने वाला सुख अर्जुन को नहीं चाहिये। वह कहता है- कृष्ण! मैं विजय नहीं चाहता। राज्य तथा सुख भी नहीं चाहता। गोविन्द! हमें राज्य या भोग अथवा जीवन से भी क्या प्रयोजन है? क्यों? इस पर कहता है- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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