यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 229

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।29।।

बहुत से योगी अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं। इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों की गति रोककर प्राणायाम परायण हो जाते हैं।

जिसे श्रीकृष्ण प्राण-अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध ‘अनापान’ कहते हैं। इसी को उन्होंने श्वास-प्रश्वास भी कहा है। प्राण वह श्वास है जिसे आप भीतर खींचते हैं और अपान वह श्वास है जिसे आप बाहर छोड़ते हैं। योगियों की अनुभूति है कि आप श्वास के साथ बाह्य वायुमण्डल के संकल्प भी ग्रहण करते हैं और प्रश्वास में इसी प्रकार आन्तरिक भले-बुरे चिन्तन की लहर फेंकते रहते हैं। बाह्य किसी संकल्प का ग्रहण न करना प्राण का हवन है तथा भीतर संकल्पों को न उठने देना अपान का हवन है। न भीतर से किसी संकल्प का स्फुरण हो और न ही बाह्य दुनिया में चलने वाले चिन्तन अन्दर क्षोभ उत्पन्न कर पायें, इस प्रकार प्राण और अपान दोनों की गति सम हो जाने पर प्राणों का याम अर्थात् निरोध हो जाता है, यही प्राणायाम है। यह मन की विजितावस्था है। प्राणों को रुकना और मन का रुकना एक ही बात है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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