विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
अनेक पुरुष योगयज्ञ का आचरण करते हैं। प्रकृति में भटकती हुई आत्मा का प्रकृति से परे परमात्मा से मिलन का नाम ‘योग’ है। योग की परिभाषा अध्याय 6/23 में द्रष्टव्य है। सामान्यतः दो वस्तुओं का मिलन योग कहलाता है। कागज से कलम मिल गया, थाली और मेज मिल गये तो क्या योग हो गया? नहीं, ये तो पंचभूतों से निर्मित पदार्थ हैं। एक ही हैं, दो कहाँ? दो प्रकृति और पुरुष हैं। प्रकृति में स्थित आत्मा अपने ही शाश्वत रूप परमात्मा में प्रवेश पा जाता है तो प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। यही योग है। अतः अनेक पुरुष इस मिलन में सहायक शम, दम इत्यादि नियमों का भली प्रकार आचरण करते हैं। योगयज्ञ करनेवाले तथा अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष ‘स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च’-स्वयं का अध्ययन, स्वरूप का अध्ययन करनेवाले ज्ञानयज्ञ के कर्ता हैं। यहाँ योग के अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) को अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से निर्दिष्ट किया गया है। अनेक लोग स्वाध्याय करते हैं। पुस्तक पढ़ना तो स्वाध्याय का आरम्भिक स्तर मात्र है। विशुद्ध स्वाध्याय है स्वयं का अध्ययन, जिससे स्वरूप की उपलब्धि होती है, जिसका परिणाम है ज्ञान अर्थात् साक्षात्कार। यज्ञ का अगला चरण बताते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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