यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 228

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


‘पूज्य महाराज जी’ कहते थे- “मनसहित इन्द्रियों और शरीर को लक्ष्य के अनुरूप तपाना ही तप कहलाता है। ये लक्ष्य से दूर भागेंगे, इन्हें समेटकर उधन ही लगाओ।”

अनेक पुरुष योगयज्ञ का आचरण करते हैं। प्रकृति में भटकती हुई आत्मा का प्रकृति से परे परमात्मा से मिलन का नाम ‘योग’ है। योग की परिभाषा अध्याय 6/23 में द्रष्टव्य है। सामान्यतः दो वस्तुओं का मिलन योग कहलाता है। कागज से कलम मिल गया, थाली और मेज मिल गये तो क्या योग हो गया? नहीं, ये तो पंचभूतों से निर्मित पदार्थ हैं। एक ही हैं, दो कहाँ? दो प्रकृति और पुरुष हैं। प्रकृति में स्थित आत्मा अपने ही शाश्वत रूप परमात्मा में प्रवेश पा जाता है तो प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है। यही योग है। अतः अनेक पुरुष इस मिलन में सहायक शम, दम इत्यादि नियमों का भली प्रकार आचरण करते हैं। योगयज्ञ करनेवाले तथा अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष ‘स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च’-स्वयं का अध्ययन, स्वरूप का अध्ययन करनेवाले ज्ञानयज्ञ के कर्ता हैं। यहाँ योग के अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) को अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से निर्दिष्ट किया गया है। अनेक लोग स्वाध्याय करते हैं। पुस्तक पढ़ना तो स्वाध्याय का आरम्भिक स्तर मात्र है। विशुद्ध स्वाध्याय है स्वयं का अध्ययन, जिससे स्वरूप की उपलब्धि होती है, जिसका परिणाम है ज्ञान अर्थात् साक्षात्कार।

यज्ञ का अगला चरण बताते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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