विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। अनेक लोग द्रव्ययज्ञ करते हैं अर्थात् आत्मपथ में, महापुरुषों की सेवा में पत्र-पुष्प अर्पित करते हैं। वे समर्पण के साथ महापुरुषों की सेवा में द्रव्य लगाते हैं। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं-भक्तिभाव से पत्र, पुष्प, फल, जल जो कुछ भी मुझे देता है, उसे मैं खाता हूँ और उसका परमकल्याण-सृजन करने वाला होता हूँ। यह भी यज्ञ है। हर आत्मा की सेवा करना, भूले हुए को आत्मपथ पर लाना द्रव्ययज्ञ है; क्योंकि प्राकृतिक संस्कारों को जलाने में समर्थ है। इसी प्रकार कई पुरुष ‘तपोयज्ञाः’-स्वधर्म पालन में इन्द्रियों को तपाते हैं अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न क्षमता के अनुसार यज्ञ की निम्न और उन्नत अवस्थाओं के बीच तपते हैं। इसी पथ की अल्पज्ञता में पहली श्रेणी का साधक शूद्र परिचया्र द्वारा, वैश्व दैवी सम्पद् के संग्रह द्वारा, क्षत्रिय काम-क्रोधादि के उन्मूलन द्वारा और ब्राह्मण ब्रह्म में प्रवेश की योग्यता के स्तर से इन्द्रियों को तपाता है। सबको एक-जैसा परिश्रम करना पड़ता है। वास्तव में यज्ञ एक ही है। अवस्था के अनुसार ऊँची-नीची श्रेणियाँ गुजरती जाती हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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