विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणा हुतम्।
यह तो प्राप्तिवाले महापुरुष के लक्षण हैं; किन्तु कर्म में प्रवेश लेनेवाले प्रारम्भिक साधक कौन-सा यज्ञ करते हैं? पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! कर्म कर। कौन-सा कर्म? उन्होंने बताया, ‘नियतं कुरु कर्म’- निर्धारित किये हुए कर्म को कर। निर्धारित कर्म कौन-सा है? तो ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।’ (3/9)- अर्जुन! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। इस यज्ञ के अतिरिक्त अन्यत्र जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है न कि कर्म। कर्म तो संसार-बन्धन से मोक्ष दिलाता है। अतः ‘तदर्थं कर्म कौनतेय मुक्तसंगः समाचर।।’- उस यज्ञ की पूर्ति के लिये संगदोष से अलग रहकर भली प्रकार यज्ञ का आचरण कर। यहाँ योगेश्वर ने एक नवीन प्रश्न किया दिया कि वह यज्ञ है क्या जिसे करें और कर्म हससे पार लगे? उन्होंने कर्म की विशेषताओं पर बल दिया, बताया कि यज्ञ आया कहाँ से? यज्ञ देता क्या है? उसकी विशेषताओं का चित्रण किया; किन्तु अभी तक यह नहीं बताया कि यज्ञ है क्या? अब यहाँ उसी यज्ञ को स्पष्ट करते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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