यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।23।।
अर्जुन! ‘यज्ञायाचरतः कर्म’-यज्ञ का आचरण ही कर्म है और साक्षात्कार का नाम ही ज्ञान है। इस यज्ञ का आचरण करके साक्षात्कार के साथ ज्ञान में स्थित, संगदोष और आसक्ति से रहित मुक्त पुरुष के सम्पूर्ण कर्म भली प्रकार विलीन हो जाते हैं। वे कर्म कोई परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाते; क्योंकि कर्मों का फल परमात्मा उनसे भिन्न नहीं रह गया। अब फल में कौन-सा फल लगेगा? इसलिये उन मुक्त पुरुषों को अपने लिये कर्म की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। फिर भी लोकसंग्रह के लिये वे कर्म करते ही हैं और करते हुए भी वे इन कर्मों में लिप्त नहीं होते। जब करते हैं तो लिप्त क्यों नहीं होते? इस पर कहते हैं-
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