यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 22

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रतृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।26।।

श्रवशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

इसके उपरान्त अचूक लक्ष्य पाने वाले, पार्थिव शरीर को रथ बनाने वाले पार्थ ने उन दोनों सेनाओं में स्थित पिता के भाइयों को, पितामहों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को, मित्रों को, श्वसुरों को और सुहृदों को देखा।

दोनों सेनाओं में अर्जुन को केवल अपना परिवार, मामा का परिवार, ससुराल का परिवार, सुहृद् और गुरुजन दिखायी पड़े। महाभारत काल की गणना के अनुसार अठारह अक्षौहिणी लगभग चालीस लाख के समकक्ष होता है; किन्तु प्रचलित गणना के अनुसार अठारह अक्षौहिणी साढ़े छः अरब के लगभग होता है, जो आज के विश्व की जनसंख्या के समकक्ष है। इतने मात्र के लिये यदा-कदा विश्व स्तर पर आवास एवं खाद्य-समस्या बन जाती है। इतना बड़ा जन समूह अर्जुन के तीन-चार रिश्तेचारों का परिवार मात्र था। क्या इतना बड़ा भी किसी का परिवार होता है? कदापि नहीं! यह हृदय-देश का चित्रण है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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