विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। अपने आप जो कुछ भी प्राप्त हो उसी में सन्तुष्ट रहने वाला, सुख-दुःख, राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि द्वन्दों से परे, ‘विमत्सरः’-ईष्र्यारहित तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाववाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बँधता। सिद्धि अर्थात् जिसे पाना था वह अब भिन्न नहीं है और वह कभी विलग भी नहीं होगा, इसलिये असिद्धि का भी भय नहीं है। इस प्रकार सिद्धि और असिद्धि में समभाववाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बँधता। कौन-सा कर्म वह करता है? वही नियत कर्म यज्ञ की प्रक्रिया। इसी को दुहराते हुए कहते हैं-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज