यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 217

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।19।।

अर्जुन! ‘यस्य सर्वे समारम्भाः’- जिस पुरुष के द्वारा सम्पूर्णता से आरम्भ की हुई क्रिया (जिसे पिछले श्लोक में कहा कि अकर्म देखने की क्षमता आ जाने पर कर्म में प्रवृत्त रहनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का करनेवाला है। जिसके करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है।) ‘कामसंकल्पवर्जिताः’-क्रमशः उत्थान होते-होते इतनी सूक्ष्म हो गयी कि वासना और मन के संकल्प-विकल्प से ऊपर उठ गयी (कामना और संकल्पों का निरोध होना मन की विजितावस्था है। अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो इस मन को कामना और संकल्प-विकल्प से ऊपर उठा देता है।), उस समय ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्’-अन्तिम संकल्प के भी शमन के साथ, जिसे हम नहीं जानते, जिसे जानने के लिये हम इच्छुक थे उस परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी हो जाती है। क्रियात्मक पथ पर चलकर परमात्मा की प्रत्यक्ष जाकारी का नाम ही ‘ज्ञान’ है। उस ज्ञान के साथ ही ‘दग्धकर्माणम्’-कर्म सदा के लिये दग्ध हो जाते हैं। जिसे पाना था पा लिया, आगे कोई सत्ता नहीं जिसकी शोध करें। इसलिये कर्म करके ढूँढ़े भी तो किसे? उस जानकारी के साथ कर्म की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थितिवालों को ही बोधस्वरूप महापुरुषों ने ‘पण्डित’ कहकर सम्बोधित किया है। उनकी जानकारी पूर्ण है। ऐसी स्थितिवाला महापुरुष करता क्या है? रहता कैसे है? उसकी रहनी पर प्रकाश डालते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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