यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 211

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।17।।


कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, अकर्म का स्वरूप भी समझना चाहिये और विकर्म अर्थात् विकल्पशून्य विशेष कर्म जो आप्तपुरुषों द्वारा होता है, उसे भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है। कतिपय लोगों ने विकर्म का अर्थ ‘निषिद्ध कर्म’, ‘मन लगाकर किया गया कर्म’ इत्यादि किया है। वस्तुतः यहाँ ‘वि’ उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है। प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के कर्म विकल्पशून्य होते हैं। आत्मस्थित, आत्मतृप्त, आप्तकाम महापुरुषों को न तो कर्म करने से कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि ही है फिर भी वे पीछे वालों के हित के लिये कर्म करते हैं। ऐसा कर्म विकल्पशून्य है, विशुद्ध है और यही कर्म विकर्म कहलाता है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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