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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।17।।
कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, अकर्म का स्वरूप भी समझना चाहिये और विकर्म अर्थात् विकल्पशून्य विशेष कर्म जो आप्तपुरुषों द्वारा होता है, उसे भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है। कतिपय लोगों ने विकर्म का अर्थ ‘निषिद्ध कर्म’, ‘मन लगाकर किया गया कर्म’ इत्यादि किया है। वस्तुतः यहाँ ‘वि’ उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है। प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के कर्म विकल्पशून्य होते हैं। आत्मस्थित, आत्मतृप्त, आप्तकाम महापुरुषों को न तो कर्म करने से कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि ही है फिर भी वे पीछे वालों के हित के लिये कर्म करते हैं। ऐसा कर्म विकल्पशून्य है, विशुद्ध है और यही कर्म विकर्म कहलाता है।
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