यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 202

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।12।।

वे पुरुष इस शरीर में कर्मों की सिद्धि चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं। कौन-सा कर्म? श्रीकृष्ण ने कहा, “अर्जुन! तू नियत कर्म कर।” नियत कर्म क्या है? यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। यज्ञ क्या है? साधना की विधि-विशेष, जिसमें श्वास-प्रश्वास का हवन, इन्द्रियों के बहिर्मुखी प्रवाह को संयमाग्नि में हवन किया जाता है, जिसका परिणाम है परमात्मा। कर्म का शुद्ध अर्थ है आराधना, जिसका स्वरूप इसी अध्याय में आगे मिलेगा। इस आराधना का परिणाम क्या है? ‘संसिद्धिम्’-परमसिद्धि परमात्म, ‘यान्ति ब्रह्म सनातमन्’-शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश, परम नैष्कम्र्य की स्थिति। श्रीकृष्ण कहते हैं-मेरे अनुसार बरतनेवाले लोग इस मनुष्य-लोक में कर्म के परिणााम परम नैष्कम्र्यसिद्धि के लिये देवताओं को पूजते हैं अर्थात् दैवी सम्पद् को बलवती बनाते हैं।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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