विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायसंजय उवाच उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा- द्वैत का आचरण ही ‘द्रोणाचार्य’ है। जब जानकारी हो जाती है कि हम परमात्मा से अलग हो गये हैं (यही द्वैत का भान है), वहाँ उसकी प्राप्ति के लिये तड़प पैदा हो जाती है, तभी हम गुरु की तलाश में निकलते हैं। दोनों प्रवृत्तियों के बीच यही प्राथमिक गुरु है; यद्यपि बाद के सद्गुरु योगेश्वर श्री कृष्ण होंगे, जो योग की स्थिति वाले होंगे। राजा दुर्योधन आचार्य के पास जाता है। मोह रूपी दुर्योधन। मोह सम्पूर्ण व्याधियों का मूल है, राजा है। दुर्योधन- दुर् अर्थात् दूषित, यो धन अर्थात् वह धन। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। उसमें जो दोष उत्पन्न करता है, वह है मोह। यही प्रकृति की ओर खींचता है और वास्तविक जानकारी के लिये प्रेरणा भी प्रदान करता है। मोह है तभी तक पूछने का प्रश्न भी है, अन्यथा सभी पूर्ण ही हैं। अतः व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखकर अर्थात पुण्य से प्रवाहित सजातीय वृत्तियों को संगठित देख कर मोह रूपी दुर्योधन ने प्रथम गुरु द्रोण के पास जाकर यह कहा- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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