यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 175

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।


इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोह में डालता है।


तस्मात्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।

इसलिये अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को ‘नियम्य’-संयत कर; क्योंकि शत्रु तो इनके अन्तराल में छिपा है। वह तुम्हारे शरीर के भीतर है। बाहर खोजने से वह कहीं नहीं मिलेगा। यह हृदय-देश की, अन्तर्गत् की लड़ाई है। इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी काम को ही मार। काम सीधे पकड़ में नहीं आयेगा अतः विकारों के निवास-स्थान का ही घेराव कर लो, इन्द्रियों को ही संयत कर लो। किन्तु इन्द्रियों और मन को संयत करना तो बड़ा कठिन है, क्या यह हम कर पायेंगे? इस पर श्रीकृष्ण आपकी सामथ्र्य बताते हुए प्रोत्साहित करते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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