यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 171

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


एक ही कर्मपथ को महापुरुष ने चार श्रेणियों में बाँट दिया-निकृष्ट, मध्यम, उत्तम और अति उत्तम। इन श्रेणी के साधकों को क्रमशः शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण की संज्ञा दी। शूद्रवाली क्षमता से कर्म का आरम्भ होता है और साधना-क्रम में वहीं साधक ब्राह्मण बन जाता है। इससे भी आगे जब वह परमात्मा में प्रवेश पा जाता है, तो ‘न ब्राह्मणो न क्षत्रियः न वैश्यो न शूद्रः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।’ वह वर्णों से ऊपर हो जाता है। यही श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि ‘चातुर्वण्र्यं मया सृष्टम्’-चार वर्णों की रचना मैंने की। तो क्या जन्म के आधार पर मनुष्यों केा बाँटा? नहीं, ‘गुणधर्म विभ्ज्ञागशः’-गुणों के आधार पर कर्म बाँटा गया। कौन-सा कर्म? क्या सांसारिक कर्म?

श्रीकृष्ण कहते हैं-नहीं, नियत कर्म। नियत कर्म क्या है? वह है यज्ञ की प्रक्रिया, जिसमें होता है श्वास में प्रश्वास का हवन, प्र्रश्वान में श्वास का हवन, इन्द्रिय-सयंम इत्यादि, जिसका शुद्ध अर्थ है योग-साधना, आराधना आराध्य देव तक पहुँचानेवाली विधि-विशेष ही आराधना है। इस आराधना कर्म को ही चार श्रेणियों में बाँटा गया। जैसी क्षमतावाला पुरुष हो, उसे उसी श्रेणी से प्रारम्भ करना चाहिये। यही सबका अपना-अपना स्वधर्म है। यदि वह आगेवालों की नकल करेगा तो भय को प्राप्त होगा। सर्वथा नष्ट तो नहीं होगा क्योंकि इसमें बीज का नाश नहीं होता; हाँ, वह प्रकृति के दबाव से भयाक्रान्त, दीन-हीन अवश्य हो जायेगा। शिशिु कशा का विद्यार्थी स्नातक कक्षा में बैठने लगे तो स्नातक क्या बनेगा, वह प्रारम्भिक वर्णमाला से भी वंचित रह जायेगा। अर्जुन प्रश्न रखता है कि मनुष्य स्वर्ध का आचरण क्यों नहीं कर पाता?-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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