यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 170

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


दो-एक साल बाद लौटे तो देखा कि परमहंस जी गद्दे पर बैठै हैं, लोग पंखा झल रहे हैं, चँवर चल रहे हैं। उन्होंने जंगल के ही एक खण्डहर में तख्त मँगाया, गद्दे बिछवाये, दो आदमियों को चँवर चलाने के लिये नियुक्त कर दिया। हर सोमवार को भीड़ लगने लगे कि पुत्र चाहिये तो पचास रुपये, पुत्री चाहिये तो पचीस रुपये। किन्तु ‘उघरहिं अन्त न होइ निबाहू।’(रामचरितमानस, 1/6/6)-एक महीने में ही कौड़ी के दो होकर चल दिये। इस भगवत्पथ में नकल साथ नहीं देता। साधक को स्वधर्म का ही आचरण करना चाहिये।

स्वधर्म क्या है? अध्याय दो में श्रीकृष्ण ने स्वधर्म का नाम लिया कि स्वधर्म को देखकर भी तू युद्ध करने योग्य है। क्षत्रिय के लिये इससे बढ़कर कल्याणकारी मार्ग नहीं है। स्वधर्म में अर्जुन क्षत्रिय पाया जाता है। संकेत किया कि-अर्जुन! जो ब्राह्मण हैं, वेदों का उपदेश उनके लिये क्षुद्र जलाशय के तुल्य हैं। वे वेदों से ऊपर उठ और ब्राह्मण बन अर्थात् स्वधर्म में परिवर्तन स्म्भव है। वहाँ पुनः कहा कि राग-द्वेष के वश में न हो, इन्हें काट। स्वधर्म श्रयेस्कर है-इसका यह आशय नहीं है कि अर्जुन किसी ब्राह्मण की नकल करके उस-जैसी वेशभूषा बना ले।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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