यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 17

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

द्रुपदौ द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक् पृथक्।।18।।

अचल पददायक द्रुपद और ध्यान रूपी द्रौपदी के पाँचों पुत्र - सहृदयता, वात्सल्य, लावण्य, सौम्यता, स्थिरता इत्यादि साधन में महान् सहायक महारथी हैं तथा बड़ी भुजा वाला अभिमन्यु- इन सबने पृथक्-पृथक् शंख बजाये। भुजा कार्य-क्षेत्र का प्रतीक है। जब मन भय से रहित हो जाता है तो उसकी पहुँच दूर तक हो जाती है।

हे राजन्! इन सबने अलग-अलग शंख बजाये। कुछ-न-कुछ दूरी सभी तय कराते हैं। इनका पालन आवश्यक है, इसलिये इनके नाम गिनाये। इसके अतिरिक्त कुछ दूरी ऐसी भी है जो मन-बुद्धि से परे है, भगवान स्वयं ही अन्तःकरण में विराजकर तय कराते हैं। इधर दृष्टि बनकर आत्मा से खड़े हो जाते हैं और सामने स्वयं खड़े होकर अपना परिचय करा लेते हैं।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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