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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
तृतीय अध्याय
शत्रु तो इन्द्रिय और भोगों के संसर्ग में है, अन्तःकरण में हैं, अतः यह युद्ध भी अन्तःकरण का युद्ध है। क्योंकि शरीर ही क्षेत्र है, जिसमें सजातीय और विजातीय दोनों प्रवृत्तियाँ, विद्या और अविद्या रहती हैं, जो माया के दो अंग हैं। इन्हीं प्रवृत्तियों का पार पाना, सजातीय प्रवृत्ति को साधकर विजातीय का अन्त करना युद्ध है। विजातीय समाप्त होने पर सजातीय का उपयोग समाप्त हो जाता है। स्वरूप का स्पर्श करके सजातीय का भी उसके अन्तराल में विलय हो जाना, इस प्रकार प्रकृति का पार पाना युद्ध है, जो ध्यन में ही सम्भव है। राग और द्वेष के शमन में समय लगता है, इसलिये बहुत से साधक क्रिया को छोड़कर सहसा महापुरुष की नकल करने लग जाते हैं। श्रीकृष्ण इससे सावधान करते हैं-
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