विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
इन्द्रियस्येस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। इन्द्रिय और इन्द्रियों के भोगों में राग और द्वेष स्थित हैं। इन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि इस कल्याण-मार्ग में कर्मों से छूट जाने वाली प्रणाली में ये राग और द्वेष दुर्धर्ष शत्रु हैं, आराधना का अपहरण कर ले जाते हैं। जब शत्रु भीतर हैं तो बाहर कोई किसी से क्यों लड़ेगा? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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