यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 158

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


जब तक तैलधारा के सदृश श्वास की डोरी न लग जाय, क्रम न टूटे, अन्य संकल्प बीच में व्यवधान उत्पन्न न कर सकें, तब तक सतत लगे रहना साधक का धर्म है। मेरी श्वास तो बाँस की तरह स्थिर खड़ी है।” यही कारण है अनुयायियों से कराने के लये वह महापुरुष भली प्रकार कर्म में बरतता है। ‘जिन गुन को सिखावै, उसे करके दिखावै।’

इस प्रकार स्वरूपस्थ महापुरुष को भी चाहिये कि स्वयं कर्म करता हुआ साधकों को भी आराधना में लगाये रहे। साधक भी श्रद्धापूर्वक आराधना में लगें। किन्तु चाहे ज्ञानयोगी हो अथवा समर्पण भाववाला निष्काम कर्मयोगी हो, साधक में साधना का अहंकार नहीं आना चाहिये। कर्म किसके द्वारा होते हैं, उसके होने में कौन कारण हैं? इस पर श्रीकृष्ण प्रकाश डालते हैं-

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः