यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 151

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण् करता है, अन्य पुरुष भी उसके अनुसार ही करते हैं। वह महापुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, संसार उसका अनुसरण करता है।

पहले श्रीकृष्ण ने स्वरूप में स्थित, आत्मतृप्त महापुरुष की रहनी पर प्रकाश डाला कि उसके लिये कर्म किये जाने से न कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि, फिर भी जनकादि कर्म में भली प्रकार बरतते थे। यहाँ उन महापुरुषों से श्रीकृष्ण धीरे से अपनी तुलना कर देते हैं कि मैं भी एक महापुरुष हूँ।

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किन्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।22।।

हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कोई कर्तव्य नहीं है। पीछे कह आये हैं-उस महापुरुष का समस्त भूतों में कोई कर्तव्य नहीं है। यहाँ कहते हैं-तीनों लोकों में मुझे कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं है तथा किंचिन्मात्र प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तब भी मैं कर्म में भली प्रकार बरतता हूँ। क्यों?-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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