विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण् करता है, अन्य पुरुष भी उसके अनुसार ही करते हैं। वह महापुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, संसार उसका अनुसरण करता है। पहले श्रीकृष्ण ने स्वरूप में स्थित, आत्मतृप्त महापुरुष की रहनी पर प्रकाश डाला कि उसके लिये कर्म किये जाने से न कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि, फिर भी जनकादि कर्म में भली प्रकार बरतते थे। यहाँ उन महापुरुषों से श्रीकृष्ण धीरे से अपनी तुलना कर देते हैं कि मैं भी एक महापुरुष हूँ। न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किन्चन। हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कोई कर्तव्य नहीं है। पीछे कह आये हैं-उस महापुरुष का समस्त भूतों में कोई कर्तव्य नहीं है। यहाँ कहते हैं-तीनों लोकों में मुझे कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं है तथा किंचिन्मात्र प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तब भी मैं कर्म में भली प्रकार बरतता हूँ। क्यों?-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज