यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 133

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


यह पुरुष जन्म-जन्मान्तरों से, युग-युगान्तरों से शरीरों की यात्रा ही तो करता चला आ रहा है। जैसे वस्त्र जीर्ण हुआ तो दूसरा-तीसरा धारण किया, इसी प्रकार कीट-पतंग से मानव तक, ब्रह्मा से लेकर यावन्मात्र जगत् परिवर्तनशील है। ऊपर-नीचे योनियों में बराबर यह जीव शरारों की हो तो यात्रा कर रहा है। कर्म कोई ऐसी वस्तु है जो इस यात्रा को सिद्ध कर देती है, पूर्ण कर देती है। मान लें, एक ही जन्म लेना पड़ा तो यात्रा जारी है, अभी तो पथिक चल ही रहा है। वह दूसरे शरीरों की यात्रा कर रहा है। यात्रा पूर्ण तब होती है जब ‘गन्तव्य’ आ जाय।

परमात्मा में स्थिति के अनन्तर इस आत्मा को शरीरों की यात्रा नहीं करनी पड़ती अर्थात् शरीर-त्याग और शरीर-धारण वाला क्रम समाप्त हो जाता है। अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है कि इस पुरुष को पुनः शरीरों की यात्रा नहीं करनी पड़ती। ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’[1] -अर्जुन! इस कर्म को करके तू संसार-बन्धन ‘अशुभ’ से छूट जायेगा। कर्म कोई ऐसी वस्तु है जो संसार-बन्धन से मुक्ति दिलाती है। अब प्रश्न खड़ा होता है कि वह निर्धारित कर्म है क्या? इस पर कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता, 4/16

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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