यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 12

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय


तस्य स´जनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मौ प्रतावान् ।।12।।

इस प्रकार अपने बलाबल का निर्णय लेकर शंख ध्वनि हुई। शंख ध्वनि पात्रों के पराक्रम की घोषणा है कि जीतने पर कौन-सा पात्र आपको क्या देगा? कौरवों में वृद्ध प्रतापवान् पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर में सिंहनाद के समान भयप्रद शंख बजाया। सिंह प्रकृति के भयावह पहलू का प्रतीक है। घोर जंगल के नीरव एकान्त में शेरकी दहाड़ कान में पड़ जाय तो रोंगटे खड़े हो जायेंगे, हृदय काँपने लगेगा, यद्यपि शेर आपसे मीलों दूर है। भय प्रकृति में होता है, परमात्मा में नहीं; वह तो अभय सत्ता है।

भ्रम रूपी भीष्म यदि विजयी होता है तो प्रकृति के जिस भयारण्य में आप हैं उससे भी अधिक भय के आवरण में बाँध देगा। भय की एक परत और बढ़ जायेगी, भय का आवरण घना हो उठेगा। यह भ्रम इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं दे सकेगा। अतः प्रकृति से निवृत्ति ही गन्तव्य का मार्ग है। संसार में प्रवृत्ति तो भवाटवी है, घोर अन्धकार की छाया है। इसके आगे कौरवों की कोई घोषणा नहीं है। कौरवों की ओर से कई बाजे एक साथ बजे; किन्तु कुल मिलाकर वे भी भय ही प्रदान करते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। प्रत्येक विकार कुछ-न-कुछ भय तो देता ही है, इसलिये उन्होंने भी घोषणा की-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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