यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 114

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय


नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्त्स्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।66।।

योगसाधनरहित पुरुष के अन्तःकरण में निष्काम कर्मयुक्त बुद्धि नहीं होती। इस अयुक्त के अन्तःकरण में भाव भी नहीं होता। भावनारहित पुरुष को शान्ति कहाँ और अशान्त पुरुष को सुख कहाँ? योगक्रिया करने से कुछ दिखायी पड़ने पर ही भाव बनता है- ‘जानें बिनु न होइ परतीती।’[1] भावना बिना शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित पुरुष को सुख अर्थात् शाश्वत, सनातन की प्राप्ति नहीं होती।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 7/88 ख/7

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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