विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याय
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्त्स्य भावना। योगसाधनरहित पुरुष के अन्तःकरण में निष्काम कर्मयुक्त बुद्धि नहीं होती। इस अयुक्त के अन्तःकरण में भाव भी नहीं होता। भावनारहित पुरुष को शान्ति कहाँ और अशान्त पुरुष को सुख कहाँ? योगक्रिया करने से कुछ दिखायी पड़ने पर ही भाव बनता है- ‘जानें बिनु न होइ परतीती।’[1] भावना बिना शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित पुरुष को सुख अर्थात् शाश्वत, सनातन की प्राप्ति नहीं होती। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रामचरितमानस, 7/88 ख/7
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