विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याययहाँ श्रीकृष्ण ने बल दिया है कि विषयों का चिन्तन नहीं करना चाहिये। साधक को नाम, रूप, लीला और धाम में ही कहीं लगे रहना चाहिये। भजन में ढील देने पर मन विषयों में जायेगा। विषयों के चिन्तन से आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उस विषय की कामना साधक के अन्तर्मन में होने लगती है। कामना की पूर्ति में व्यवधान होने पर क्रोध, क्रोध से अविवेक, अविवेक से स्मृति-भ्रम और स्मृति-भ्रम से बुद्धि नष्ट हो जाती है। निष्काम कर्मयोग को बुद्धियोग कहा जाता है; क्योंकि बुद्धि-स्तर पर इसमें विचार रखना चाहिये कि कामनाएँ न आने पाएँ, फल है ही नहीं। कामना आने से ये बुद्धियोग नष्ट हो जाता है। ‘साधन करिय बिचारहीन मन सुद्ध होय नहिं तैसे।’[1] विचार आवश्यक है। विचारशून्य पुरुष श्रेय साधन से नीचे गिर जाता है। साधन-क्रम टूट जाता है, सर्वथा नष्ट नहीं होता। भोग के पश्चात् साधन वहीं से पुनः आरम्भ होता है, जहाँ अवरुद्ध हुआ था। यह तो विषयाभिमुख साधक की गति है। स्वाधीन अन्तःकरणवाला साधक किस गति को प्राप्त होता है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विनयपत्रिका, पद संख्या 115/3
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