यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 111

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

यहाँ श्रीकृष्ण ने बल दिया है कि विषयों का चिन्तन नहीं करना चाहिये। साधक को नाम, रूप, लीला और धाम में ही कहीं लगे रहना चाहिये। भजन में ढील देने पर मन विषयों में जायेगा। विषयों के चिन्तन से आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उस विषय की कामना साधक के अन्तर्मन में होने लगती है। कामना की पूर्ति में व्यवधान होने पर क्रोध, क्रोध से अविवेक, अविवेक से स्मृति-भ्रम और स्मृति-भ्रम से बुद्धि नष्ट हो जाती है। निष्काम कर्मयोग को बुद्धियोग कहा जाता है; क्योंकि बुद्धि-स्तर पर इसमें विचार रखना चाहिये कि कामनाएँ न आने पाएँ, फल है ही नहीं। कामना आने से ये बुद्धियोग नष्ट हो जाता है। ‘साधन करिय बिचारहीन मन सुद्ध होय नहिं तैसे।’[1] विचार आवश्यक है। विचारशून्य पुरुष श्रेय साधन से नीचे गिर जाता है। साधन-क्रम टूट जाता है, सर्वथा नष्ट नहीं होता। भोग के पश्चात् साधन वहीं से पुनः आरम्भ होता है, जहाँ अवरुद्ध हुआ था।

यह तो विषयाभिमुख साधक की गति है। स्वाधीन अन्तःकरणवाला साधक किस गति को प्राप्त होता है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. विनयपत्रिका, पद संख्या 115/3

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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