विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याय
यदा संहरते चायं कूर्मोऽगानीव सर्वशः। जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, ठीक वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। खतरे को देखते ही कछुआ जिस प्रकार अपने सिर और पैर समेट लेता है, ठीक इसी प्रकार जो पुरुष विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों को सब ओर से समेटकर हृदय-देश में निरोध कर लेता है, उस काल में उस पुरुष की बुद्धि स्थिर होती है। किन्तु यह तो एक दृष्टान्त मात्र है। खतरे का एहसास मिटते ही कछुआ तो अपने अंगों को पुनः फैला देता है, क्या इसी प्रकार स्थितप्रज्ञ महापुरुष भी विषयों में रस लेने लगता है? इस पर कहते हैं-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज