विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याययः सर्वत्रानभ्ज्ञिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ शुभ अथवा अशुभ को प्राप्त होकर न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। शुभ वह है जो परमात्मस्वरूप में लगाता है, अशुभ वह है जो प्रकृति की ओर ले जानेवाला होता है। स्थितप्रज्ञ पुरुष अनुकूल परिस्थितियों से न प्रसन्न होता है और न प्रतिकूल परिस्थितियों से द्वेष करता है; क्योंकि प्राप्त होने योग्य वस्तु न उससे भिन्न है और न पतित करने वाले विकार ही उसके लिये हैं अर्थात् अब साधन से उसका अपना कोई प्रयोजन नहीं रहा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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