मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 26

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

4. मानव शरीर का सदुपयोग

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जिनका मन साम्यावस्था में स्थित हो गया, उन लोगों ने संसार को जीत लिया अर्थात वे जन्म-मरण से ऊँचे उठ गये। ब्रह्म निर्दोष और सम है और उनका अन्तःकरण भी निर्दोष और सम हो गया, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हो गये। वास्तव में परमात्मा में स्थिति सबकी है; क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक हैं। एक सुई की नोक-जितनी जगह भी परमात्मा से खाली नहीं है। परमात्मा सब जगह-समान रूप से परिपूर्ण हैं। परन्तु परमात्मा में स्थित होते हुए भी संसार में राग-द्वेष के कारण मनुष्य परमात्मा में स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसार में स्थित हैं। वे परमात्मा में स्थित तभी होंगे, जब उनके मन में राग-द्वेष मिट जायँगे। जब तक मन में राग-द्वेष रहेंगे, तब तक भले ही चारों वेद और छः शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी। राग-द्वेष को हटाने के लिये क्या करें? इसके लिये भगवान् कहते हैं-

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।[1]

‘इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में[2] मनुष्य के राग-द्वेष व्यवस्था से[3] स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके[4]शत्रु हैं।’

अनुकूलता को लेकर राग और प्रतिकूलता को लेकर द्वेष होता है। साधक को चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत होने से राग-द्वेष बढ़ते हैं। जब तक राग-द्वेष हैं, तब तक जन्म-मरण है। राग-द्वेष से ऊँचा उठने पर मुक्ति होती है और परमात्मा में प्रेम होने पर भक्ति होती है। पहले कर्मयोग और ज्ञानयोग करके भी भक्ति कर सकते हैं और आरम्भ से भी भक्ति कर सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 3। 34
  2. प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय में
  3. अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर
  4. पारमार्थिक मार्ग में विघ्न डालने वाले

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