मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 22

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

4. मानव शरीर का सदुपयोग

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मन- बुद्धि चेतन में दीखते हैं, पर हैं ये जड़ ही। ये चेतन के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। हम (स्वयं) शरीर- इन्द्रियाँ- मन-बुद्धि को जानने वाले हैं। इन्द्रियों के दो विभाग हैं- कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ। कर्मेन्द्रियाँ तो सर्वथा जड़ हैं और ज्ञानेन्द्रियों में चेतन का आभास है। उस आभास को लेकर ही श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण- ये पाँचों इन्द्रियाँ ‘ज्ञानेन्द्रियाँ’ कहलाती हैं। ज्ञानेन्द्रियों को लेकर जीवात्मा विषयों का सेवन करता है-

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।[1]

ज्ञानेन्द्रियों में और अन्तःकरण में जो ज्ञान दीखता है, वह उनका खुद का नहीं है, प्रत्युत चेतन के द्वारा आया हुआ है। खुद तो वे जड़ ही हैं। जैसे दर्पण को सूर्य के सामने कर दिया जाय तो सूर्य का प्रकाश दर्पण में आ जाता है। वह प्रकाश मूल में सूर्य का है, दर्पण का नहीं। ऐसे ही इन्द्रियों में और अन्तःकरण में चेतन से प्रकाश आता है। चेतन के प्रकाश से प्रकाशित होने पर भी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण जड़ हैं। हम स्वयं चेतन हैं और परमात्मा के अंश हैं। गीता में भगवान् कहते हैं- ‘ममैवांशो जीवलोके’[2]। जैसे शरीर माँ और बाप दोनों से बना हुआ है, ऐसे स्वयं प्रकृति और परमात्मा दोनों से बना हुआ नहीं है। यह केवल परमात्मा का ही अंश है। भगवान कहा है-

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम् ।[3]

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 15। 9
  2. 15। 7
  3. गीता 14। 3
  4. गीता 14। 7

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