मेरे एक राधा नाम अधार॥
कोउ देखत निज रूप ब्रह्म पर निराकार अबिकार।
कोउ करि निज तादात्म्य आत्म महँ, जो सम, सर्वाधार॥
कोउ द्रष्टा देखत प्रपंच जिमि मिथ्या स्वप्न-बिकार।
कोउ निरखत नित दिव्य ज्योति हिय, परम तत्त्व साकार॥
कोउ कुंडलिनी कौं जागृत करि, षट चक्रनि करि पार।
पहुँचत सिखर सहस-दल ऊपर, जोग-सिद्धि कौ सार॥
कोउ अनहद धुनि सुनत दिवस-निसि, अजपा-जाप सँभार।
कोउ निष्काम कर्म-रत जोगी, कोउ नित करत बिचार॥
कोउ कमलापति, कोउ गिरिजापति नाम-रूप उर-धार।
भक्त-कल्पतरु राम-कृष्ण कोउ सेवत अति सत्कार॥
हौं जड़-मति, अति मूढ़ हठीलौ, नटखट, निपट गँवार।
राधे-राधे रटौं निरंतर, मानि सार कौ सार॥