मेरी सिख स्रवन काहैं न करति -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ


मेरी सिख स्रवन काहैं न करति।
अजहुँ भोरी भई रैंहै, कहति तोस डरति।।
ससि निरखि मुख चलत नाहिन, नैन निरखि कुरंग।
कमल, खंजन, मीन, मधुकर, होत हैं चित-भंग।।
देखि नासा कीर लज्जित, अधर दसन निहारि।
बिंब अरु बंधूक बिद्रुम, दामिनी डर भारि।।
उर निरखि चकवाक बिथके, कटि निरखि बन राज।
चाल देखि मराल भूले, चलत तब गजराज।।
अंग-अँग अवलोकि सोभा, मनहिं देखि बिचारि।
सूर मुख पट देति काहैं न, बरष द्वादस भारि।।1715।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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