मुरली मधुर बजाई स्याम।
मन हरि लियौ भवन नहिं भावै, ब्याकुल ब्रज की बाम।।
भोजन, भूषन की सुधि नाहीं, तनु को नहीं सम्हार।।
गृह गुरु-लाज सूत सौं तोरयौ, डरीं नहीं ब्यवहार।।
करत सिंगार बिबस भई सुन्दरि, अंगनि गईं भुलाइ।।
सूर-स्याम बन वेनु बजावत, चित हित-रास रमाइ।।996।।