मुरली कौ मन हरि सौं मान्यौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग रामकली


मुरली कौ मन हरि सौं मान्यौ।
हरि कौ मन मुरली सौं मिलि गयौ, जैसैं पय अरु पान्यौ।।
जैसैं चोर चोर सौं रातैं, ठठा ठठा एकै जानि।
कुटिल कुटिल मिलि चलैं एक ह्वै, दुहुनि बनी पहिचानि।।
वे बन बन नित धेनु चरावत, वह बनही की आहि।
सूर गढ़ी जोरी बिधना की, जैसी तैसी ताहि।।1279।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः