मुझे प्रभु! दो वह सुन्दर स्थान।
जहाँ गा सकूँ सरस तुम्हारा मैं अचिन्त यश-गान॥
जहाँ न हो मानापमान का तनिक भी कहीं भान।
जहाँ न हो स्तुति-निन्दा, प्रिय-अप्रिय का तनिक विधान
जहाँ न हो बँटवारे को कुछ धन-धरणी-सामान।
जहाँ न हो नकली पर्दा, जो झूठ दिखावे शान॥
जहाँ सत्य नित रहे प्रकाशित, बिना बाहरी वेष।
जहाँ प्रेम का शुद्ध सुधा-रस बहता रहे अशेष॥
जहाँ सरल शुभ की धारा में सब बह जाय भदेस।
जहाँ भरा हो भगवदीय भावों से सारा देश॥