मीराँ रंग लाग्यो हो नाँम हरी, और रंग अटक परि। (टेक)
गिरधर गास्याँ सती न होस्याँ, मन मोह्यो घण नामी।
जेठ बहू को नहिं राणाजी, थे सेवक म्हे स्वामी।।1।।
चोरी कराँ नहिं जीव सतावाँ, काँईं करैगौ म्हाँको कोई।
गज सूँ उतरि गधे नहिं चढ़स्याँ, या तो बात न होई।।2।।
चूड़ो तिलक दोवड़ो माला, सील विरत सिणगाराँ।
और वस्त रत नहीं मुहि भावै (हो राणाजी!) यह गुरग्यान हमारा।।3।।
भावै कोई निन्दो भावै कोई बिन्दो, म्हे तो गुण गोविन्द रा गास्याँ।
जीं मारग वै सन्त गया छै, जीं मारग म्हे जास्याँ।।4।।
राज करन्ता नरक पड़न्ता, भोगी जोरै लीया।
जोग करन्ता मुकति पहुन्ता, जोगी जुग-जुग जीया।।5।।
गिरधर धनी धनी मेरे गिरधर, मात पिता सुत भाई।
थे थाँकै म्हे म्हाँकै हो राणाजी, यूँ कहै मीराँ बाई।।6।।[1]
राग - धनाश्री : ताल - कहरवा
(चरित)