मीराँ चरित्र


घारे अन्‍धकार को प्रकाश पूर्ण ‘वासुदेव’, मोह-ममता के दूर करने को ज्ञान है।[1]
सतपथ से जो विचलना चाहते हों, उन्‍हें चीरने-विदारने को तीर है, कमान है।।
पत्‍थर को पानी करना भी बतलाया गया, विष को भी अमृत बनाने का विधान है।
कृष्‍ण पहिचानने की दृष्टि करने के लिये मीराँ का चरित्र ही ममीरा के समान है।।
दमन का चक्र जिस पर चलता ही रहा, कम न हुई पै प्रीति-रीति जिसे ले चुकी।
‘वासुदेव’ जिसको हिला न सका शासन भी अमर हो जिसके भरोसे विष जैं चुकी।।
जिसके सहारे परिवार के पयोनिधि की तरल तरंग बीच तरनी को खे चुकी।
विश्‍व की अमूल्‍य निधि जिसमें विराजती थी, वह मन मीराँ मनमोहन को दे चुकी।।
विफल प्रयत्‍न समझाने के हुए थे सब, विषम विरोधियों के बीच विष बो गया।
मीराँ के सुप्राण हर लेने के विचार से ही कालकूट का भर के प्‍याला उनको गया।।
वदन सुधाकर के कर में पहुँचकर तरल, सरल हो गरलता को खो गया।
भक्ति की अमीरा मीराँ अधर-सुधा को छूके वह विष-प्‍याला आला अमृत का हो गया।।
वृन्‍दावनवासी श्रीगुपाल गिरिधारी की तौ ललित लता सी, धेनु, कंकर-सी हो गयी।
भव्‍य भक्तिमार्ग के भुलैयन को ‘वासुदेव’ सत्‍य, शुद्ध, सरल, भयंकर-सी हो गयी।।
प्रभु-पद-विमुख पयोनिधि पठैयन को रुद्र-रूप पूर्ण प्रलयंकर-सी हो गयी।
राना के पठाये विष-प्‍याले के पिवैयन को मीराँ की मनोज्ञ मूर्ति शंकर-सी हो गयी।।
राना का घराना, घबराना रहा रात-दिन, मीराँ को सभी के समझाने का विचार था।
‘वासुदेव’ वहाँ निज प्रण-से हटी न जब, प्राण हर लेने के सिवा क्‍या उपचार था।।
पूतना के दूध में जहर जिसने था पिया, विष-पान में मीराँ को उसी का अधार था।
रात में जो अमर रकार औ मकार वही मीराँ में भी मंजुल मकार था, रकार था।।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • [रचयिता – पं. श्रीवासुदेव जी गोस्‍वामी]
  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 731

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