माया देखत ही जु गई -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री



            
माया देखत ही जु गई।
ना हरि-हित, ना तू-हित, इनमैं एकौ तौ न भई।
ज्‍यौं मधुमाखी सँचति निरंतर, बन की ओट लई।
ब्‍याकुल होत हरे ज्‍यौं सरबस; आँखिनि घूरि दई।
सुत-संतान-स्‍वजन-वनिता-रति, घन समान उनई।
राखे सूर पवन पाखँड हति, करीं जो प्रीति नई।।50।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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