मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर, भजे नहीं मैंने भगवान।
रचा-पचा मैं रहा निरन्तर, मिथ्या भोगों में सुख मान॥
मान लिया मैंने जीवन का लक्ष्य एक इन्द्रिय-सुख-भोग।
बढ़ते रहे सहज ही इससे नये-नये तन-मन के रोग॥
बढ़ता रहा नित्य कामज्वर, ममता-राग-मोह-मद-मान।
हुई आत्म-विस्मृति, छाया उन्माद, मिट गया सारा ज्ञान॥
केवल आ बस गया चित्त में राग-द्वेष-पूर्ण संसार।
हुए उदय जीवन में लाखों घोर पतन के हेतु विकार॥
समझा मैंने पुण्य पाप को, ध्रुव विनाश को बड़ा विकास।
लोभ-क्रोध-द्वेष-हिंसावश जाग उठा अघ में उल्लास॥
जलने लगा हृदय में दारुण अनल, मिट गयी सारी शान्ति।
दम्भ हो गया जीवन-सम्बल, छायी अमित अमिट-सी भ्रान्ति॥
जीवन-संध्या हुई, आ गया इस जीवन का अन्तिम काल।
तब भी नहीं चेतना आयी, टूटा नहीं मोह-जंजाल॥
प्रभो! कृपा कर अब इस पामर, पथभ्रष्टपर सहज उदार।
चरण-शरण में लेकर कर दो, नाथ! अधमका अब उद्धार॥