मीराँबाई की पदावली
विरहानुभव राग विहाग
माई म्हारी हरिह न बूझी बात ।। टेक ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसके आगे ये पंक्तियां भी मिलती हैं :- सुपन में हरि दरस दीन्हों, जैन जाणयो हरि जात। नैन म्हारा उघड़ि आया, रही मन पछतात ।
- ↑ रैण अँधेरी बिरह घेरी, तारा गिणत निस जात। ले कटारी कंठ चीरूँ, करूँगी अपघात ।
- ↑ हरिह = हरि वा प्रियतम ने ही। बूझी बात = कुछ भी पूछा वा समझा। पिंड = पड वा शरीर। माँसूँ = मेंसे। पाट = परदा वा द्वार अथवा घूंघट। मुखाँ = मुख से। सांझ... परभात = संध्या से लेकर प्रभात का समय तक आ गया। अबोलणाँ = बिना बोले ही। जुग = युग का समय। बीतण लागो = बीतने लगा। काहे की = कैसी। कुसलात = कुशल। आवण = आने के लिये। तारा गिणंत = तारे गिन गिन कर रात का समय व्यतीत करती हूँ। निरास = निराश। सारू = काट डालूं।
विशेष - 'पापी प्राण' के लिए देखिये-
'नहिं जानि परै कछु, या तन को केहि मोहते पापी न प्रान तजै- हरिश्चन्द्र ।
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