माई म्‍हारी हरिह न बूझी बात -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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विरहानुभव

राग विहाग


माई म्‍हारी हरिह न बूझी बात ।। टेक ।।
पंड माँसूँ प्राण पापी, निकसि क्‍यूँ नहीं जात ।
पाट न खोल्‍या मुखाँ न बोल्‍या, साँझ भई परभात ।
अबोलणाँ जुग बीतणा लागो, तो काहे की कुसलात[1]
सावण आवण कह गया रे, हरि आवण की आस ।
रैण[2] अँधेरी बीज चमंकै, तारा गिणत निरास ।
लेइ कटारी कंठ सारू, मरूँगी बिष खाइ ।
मीराँ दासी राम राती, लालच रही ललचाइ ।।68।।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसके आगे ये पंक्तियां भी मिलती हैं :- सुपन में हरि दरस दीन्‍हों, जैन जाणयो हरि जात। नैन म्‍हारा उघड़ि आया, रही मन पछतात ।
  2. रैण अँधेरी बिरह घेरी, तारा गिणत निस जात। ले कटारी कंठ चीरूँ, करूँगी अपघात ।
  3. हरिह = हरि वा प्रियतम ने ही। बूझी बात = कुछ भी पूछा वा समझा। पिंड = पड वा शरीर। माँसूँ = मेंसे। पाट = परदा वा द्वार अथवा घूंघट। मुखाँ = मुख से। सांझ... परभात = संध्या से लेकर प्रभात का समय तक आ गया। अबोलणाँ = बिना बोले ही। जुग = युग का समय। बीतण लागो = बीतने लगा। काहे की = कैसी। कुसलात = कुशल। आवण = आने के लिये। तारा गिणंत = तारे गिन गिन कर रात का समय व्यतीत करती हूँ। निरास = निराश। सारू = काट डालूं।
    विशेष - 'पापी प्राण' के लिए देखिये-
    'नहिं जानि परै कछु, या तन को केहि मोहते पापी न प्रान तजै- हरिश्चन्द्र ।

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