महाराज दसरथ यौं सोचत ।
हा रघुनाथ, लछन, बैदेही सुमिरि नीर दृग मोचत।
त्रिया-चरित मतिमंद न समझत, उठि प्रछालि मुख धोवत।
अति परीत बिरीत कछु औरै, बार-बार मुख जोवत।
परम कुबुद्धि कह्यौ नहिं समुझति, राम-लछन हँकराए।
कौशिल्या सुनि परम दीन ह्वै, नैन नीर ढरकाए।
बिहूल तम-मन चकृत भई सो, यह प्रतच्छ सुपनाए।
गदगद- कंठ सूर कोसलपुर सोर सुनत दुख पाए॥31॥