महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-12

चतुर्थ (4) अध्याय: स्‍त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

Prev.png

महाभारत: स्‍त्री पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


दु:खमय संसार के गहन स्‍वरुप का वर्णन और उससे छूटने का उपाय


धृतराष्ट्र ने पूछा- वक्ताओं में श्रेष्ठ विदुर! इस गहन संसार के स्‍वरूप का ज्ञान कैसे हो? यह मैं सुनना चाहता हूँ। मेरे प्रश्‍न के अनुसार तुम इस विषय का यथार्थ रूप से वर्णन करो।

विदुर जी ने कहा- महाराज! जब गर्भाशय में वीर्य और रज का संयोग होता है तभी से जीवों की गर्भवृद्धि रूप सारी क्रिया शास्त्र के अनुसार देखी जाती है।[1] आरम्‍भ में जीव कलिल (वीर्य और रज के संयोग) के रूप में रहता है, फिर कुछ दिन बाद पाँचवाँ महीना बीतने पर वह चैतन्‍य रूप से प्रकट होकर पिण्‍ड में निवास करने लगता है। इसके बाद वह गर्भस्‍थ पिण्‍ड सर्वांगपूर्ण हो जाता है। इस समय उसे मांस और रुधिर से लिपे हुए अत्‍यन्‍त अपवित्र गर्भाशय में रहना पड़ता है। फिर वायु के वेग से उसके पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं और सिर नीचे की ओर। इस स्थिति में योनि द्वार के समीप आ जाने से उसे बड़े दुख सहने पड़ते हैं। फिर पूर्वकर्मों से संयुक्त हुआ वह जीव योनि मार्ग से पीड़ित हो उससे छुटकारा पाकर बाहर आ जाता है और संसार में आकर अन्‍यान्‍य प्रकार के उपद्रवों का सामना करता है। जैसे कुत्ते मांस की ओर झपटते हैं, उसी प्रकार बालग्रह उस शिशु के पीछे लगे रहते हैं। तदनन्‍तर ज्‍यों-ज्‍यों समय बीतता जाता है, त्‍यों-ही-त्यों अपने कर्मों से बँधे हुए उस जीव को जीवित अवस्‍था में नयी-नयी व्‍याधियाँ प्राप्‍त होने लगती हैं। नरेश्वर! फिर आसक्ति के कारण जिनमें रस की प्रतीति होती है, उन विषयों से घिरे और इन्द्रिय रूपी पाशों से बँधें हुए उस संसारी जीव को नाना प्रकार के संकट घेर लेते हैं। उनसे बँध जाने पर पुन: इसे कभी तृप्ति ही नहीं होती है। उस अवस्‍था में वह भले-बुरे कर्म करता हुआ भी उनके विषय में कुछ समझ नहीं पाता। जो लोग भगवान के ध्‍यान में लगे रहने वाले हैं, वे ही शास्त्र के अनुसार चलकर अपनी रक्षा कर पाते हैं। साधारण जीव तो अपने सामने आये हुए यमलोक को भी नहीं समझ पाता है।

तदनन्‍तर काल से प्रेरित हो यमदूत उसे शरीर से बाहर खींच लेतेहैं और वह मुत्‍यु को प्राप्‍त हो जाता है। उस समय उसमें बोलने की भी शक्ति नहीं रहती। उसके जितने भी शुभ या अशुभ कर्म हैं वे सामने प्रकट होते हैं। उनके अनुसार पुन: अपने आपको देह बन्‍धन में बँधता हुआ देखकर भी वह उपेक्षा कर देता है- अपने उद्धार का प्रयत्‍न नहीं करता। अहो! लोभ के वशीभूत होकर यह सारा संसार ठगा जा रहा है। लोभ, क्रोध और भय से यह इतना पागल हो गया है कि अपने आपको भी नहीं जानता।

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’एकरात्रोषितं कलिलं भवति पंचरात्राद् बुद्धद:’ एक रात में रज और वीर्य मिलकर ‘कलिल’ रूप होते हैं और पाँच रात में ‘बुद्बुद’ के आकार में परिणत हो जाते हैं। इत्‍यादि शास्त्र वचनों के अनुसार गर्भ के बढ़ने आदि की सारी क्रिया ज्ञात होती है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः