महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 14-33

प्रथम (1) अध्याय: सौप्तिक पर्व

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महाभारत: सौप्तिक पर्व :प्रथम अध्याय: श्लोक 14-33 का हिन्दी अनुवाद


ओह! जिसने अकेले ही मेरे पूरे-के-पूरे सौ पुत्रों का वध कर डाला उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूँगा। संजय! मेरे पुत्र ने मेरी बात न मानकर महात्मा विदुर के कहे हुए वचन को सत्य कर दिखाया। तात संजय! अब यह बताओ कि मेरे पुत्र दुर्योधन के अधर्मपूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया।

संजय ने कहा- राजन! आपके पक्ष के वे तीनों वीर वहाँ से थोड़ी ही दूर पर जाकर खड़े हो गये। वहाँ उन्‍होंने नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा। उस स्थान पर थोड़ी देर तक ठहर कर उन सब लोगों ने अपने उत्तम घोड़ों को पानी पिलाया और सूर्यास्त होते-होते वे उस विशाल वन में जा पहुँचे, जहाँ अनेक प्रकार के मृग और भाँति-भाँति के पक्षी निवास करते थे। तरह-तरह के वृक्षों और लताओं ने उस वन को व्याप्त कर रखा था और अनेक जाति के सर्प उसका सेवन करते थे। उसमें जहां-तहाँ अनेक प्रकार के जलाशय थे, भाँति-भाँति के पुष्प उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे, शत-शत रक्त कमल और असंख्य नीलकमल वहाँ जलाशयों में सब ओर छा रहे थे। उस भयंकर वन में प्रवेश करके सब ओर दृष्टि डालने पर उन्हें सहस्रों शाखाओं से आच्छादित एक बरगद वृक्ष दिखायी दिया। राजन! मनुष्यों में श्रेष्ठ उन महारथियों ने पास जाकर उस उत्त‍म वनस्पति; बरगद को देखा। प्रभो! वहाँ रथों से उतरकर उन तीनों ने अपने घोड़ों को खोल दिया और यथोचित रूप से स्नान आदि करके संध्योपासना की।

महाराज! तदनन्तर सूर्यदेव के पर्वत श्रेष्ठ अस्ताचल पर पहुँच जाने पर धाय की भाँति सम्पूर्ण जगत को अपनी गोद में विश्राम देने वाली रात्रिदेवी का सर्वत्र आधिपत्य हो गया। सम्पूर्ण ग्रहों नक्षत्रों और ताराओं से अलंकृत हुआ आकाश जरी की साड़ी के समान सब ओर से देखने योग्य प्रतीत होता था। रात्रि में विचरने वाले प्राणी अपनी इच्छा के अनुसार उछलकूद मचाने लगे और जो दिन में विचरने वाले जीव-जन्तु थे, वे निद्रा के अधीन हो गये। रात्रि में घूमने-फिरने वाले जीवों का अत्यन्त भयंकर शब्द प्रकट होने लगा। मांसभक्षी प्राणी प्रसन्न हो गये और वह भयंकर रात्रि सब ओर व्याप्ति हो गयी। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था। उस भयंकर बेला में दुख और शोक से संतप्त हुए कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा एक साथ ही आस-पास बैठ गये। वटवृक्ष के समीप बैठकर कौरवों तथा पाण्डव योद्धाओं के उसी विनाश की बीती हुई बात के लिये शोक करते हुए वे तीनों वीर निद्रा से सारे अंश शिथिल हो जाने के कारण पृथ्वी पर लेट गये। उस समय वे भारी थकावट से चूर-चूर हो रहे थे और नाना प्रकार के बाणों से उनके सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे।

तदनन्ततर कृपाचार्य और कृतवर्मा- इन दोनों महारथियों को गाढ़ी नींद आ गयी। वे सुख भोगने के योग्य थे, दुख पाने के योग्य कदापि नहीं थे तो भी धरती पर ही सो गये थे। महाराज! बहुमूल्य शय्या एवं सुख सामग्री से सम्पन्न होने पर भी उन दोनों वीरों को परिश्रम और शोक से पीड़ित हो अनाथ की भाँति पृथ्वी पर ही पड़ा देख द्रोणपुत्र अश्वत्थामा क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हो गया। भारत! उस समय उसे नींद नहीं आयी। वह सर्प के समान लंबी सांस खींचता रहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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