महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 20-31

एकादश (11) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)

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महाभारत: सौप्तिक पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 20-31 का हिन्दी अनुवाद


द्रौपदी बोली- महाराज! मैंने सुना है कि द्रोणपुत्र के मस्तक में एक मणि है, जो उसके जन्म के साथ ही पैदा हुई है। उस पापी को युद्ध में मारकर यदि वह मणि ला दी जायगी तो मैं उसे देख लूगीं। राजन! इस मणि को आपके सिर पर धारण करा कर ही मैं जीवन धारण का सकूंगी, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है। पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर सुन्दरी कृष्णा भीमसेन के पास आयी और यह उत्तम वचन बोली- प्रिय भीम! आप क्षत्रिय-धर्म का स्मरण करके मेरे जीवन की रक्षा कर सकते हैं। वीर! जैसे इन्द्र ने शम्बरासुर को मारा था, उसी प्रकार आप भी उस पापकर्मी अश्वत्थामा का वध करें। इस संसार में कोई भी पुरुष पराक्रम में आपकी समानता करने वाला नहीं है। यह बात सम्पूर्ण जगत में प्रसिद्ध है कि वारणावत नगर में जब कुन्ती के पुत्रों पर भारी संकट पड़ा था तब आप ही द्वीप के समान उनके रक्षक हुए थे। इसी प्रकार हिडिम्बासुर से भेंट होने पर भी आप ही उनके आश्रयदाता हुए विराट नगर में जब कीचक ने मुझे बहुत तंग कर दिया तब उस महान संकट में आपने मेरा भी उसी तरह उद्धार किया जैसे इन्द्र ने शची का किया था। शत्रुसूदन पार्थ! जैसे पूर्वकाल में ये महान कर्म आपने किये थे, उसी प्रकार इस द्रोणपुत्र को भी मारकर सुखी हो जाइये।

दुःख के कारण द्रौपदी का यह भाँति-भाँति का विलाप सुनकर महाबली कुन्तीकुमार भीमसेन इसे सहन न कर सके। वे द्रोणपुत्र के वध का निश्चय करके सुवर्णभूषित विचित्र अंगों वाले रथ पर आरूढ़ हुए। उन्‍होंने बाण और प्रत्यंचा सहित एक सुन्दर एवं विचित्र धनुष हाथ में लेकर नकुल को सारथि बनाया तथा बाणसहित धनुष को फैलाकर तुरंत ही घोड़ों को हंकवाया। पुरुषसिंह नरेश! नकुल के द्वारा हांके गये वे वायु के समान वेग वाले शीघ्रगामी घोडे़ बड़ी उतावली के साथ तीव्र गति से चल दिये। भरतनन्दन! छावनी से बाहर निकलकर अपनी टेक से न टलने वाले भीमसेन अश्वत्थामा के रथ का चिह्न देखते हुए उसी मार्ग से शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े, जिससे द्रोणपुत्र अश्वत्थामा गया था।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत ऐषिक पर्व में अश्वत्थामा के वध के लिये भीमसेन का प्रस्थानविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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