महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 69 श्लोक 30-44

एकोनसप्ततिम (69) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्ततिम अध्याय: श्लोक 30-44 का हिन्दी अनुवाद

भलीभाँति दण्‍ड धारण करने वाला राजा सदा धर्म का भागी होता है। निरंतर दण्‍ड धारण किये रहना राजा के लिए उत्‍तम धर्म मानकर उसकी प्रशंसा की जाती है। भरतनंदन! राजा को वेदों और वेदांगों का विद्वान, बुद्धिमान, तपस्‍वी, सदा दानशील और यज्ञपरायण होना चाहिये। ये सारे गुण राजा में सदा स्‍थिर भाव से रहना चाहिये। यदि राजा का न्‍यायोचित व्‍यवहार ही लुप्‍त हो गया, तो उसे कैसे स्‍वर्ग प्राप्‍त हो सकता है और कैसे यश? बुद्धिमान पृथ्‍वीपालक नरेश जब किसी अत्‍यंत बलवान राजा से पीड़ित होने लगे, तब उसे दुर्ग का आश्रय लेना चाहिये। उस समय प्राप्‍त कर्तव्‍य पर विचार करने के लिए मित्रों का आश्रय लेकर उनकी सलाह से पहले तो अपनी रक्षा के लिए उचित व्‍यवस्‍था करे, पिर साम, भेद अथवा युद्ध में से क्‍या करना है, इस पर विचार करके उसके उपयुक्‍त कार्य करे। यदि अयुद्ध का ही निश्‍चय हो तो पशुशालाओं को वन से उठाकर सड़कों पर ले आवे, छोटे-छोटे गांवों को उठा दे और उन सबको शाखा नगरों (कस्‍बों) में मिला दे।

राज्‍य में जो धनी और सेना के प्रधान-प्रधान अधिकारी हों अथवा जो मुख्‍य-मुख्‍य सेनाएं हों, उन सबको बारम्‍बार सान्‍त्‍वना देकर ऐसे स्‍थानों में रख दे, जो अत्‍यंत गुप्‍त और दुर्गम हो। राजा स्‍वयं ही ध्‍यान देकर खेतों में तैयार हुई अनाज की फसल को कटवाकर किले के भीतर रखवा ले, यदि किले में लाना संभव न हो तो उन फसलों को आग लगाकर जला दे। शत्रु के खेतों में जो अनाज हों, उन्‍हें नष्‍ट करने के लिए वहीं के लोगों में फूट डाले अथवा अपनी ही सेना के द्वारा वह सब नष्‍ट करा दे, जिससे शत्रु के पास खाद्य सामग्री का अभाव हो जाय। नदी के मार्गों पर जो पुल पड़ते हों उन सबको तुड़वा दे। शत्रु के मार्ग में जो जलाशय हों, उनका सारा जल इधर-उधर बहा दे। जो जल बहाया न जा सके, उसे दूषित कर दे, जिससे वह पीने योग्‍य नह रह जाये। वर्तमान अथवा भविष्‍य में सदा किसी मित्र का कार्य उपस्थित हो तो उसे भी छोड़कर अपने शत्रु के उस शत्रु का आश्रय लेकर रहे जो राज्‍य की भूमि के निकट का निवासी हो तथा युद्ध में शत्रु पर आघात करने के लिए तैयार रहता हो। जो छोटे-छोटे दुर्ग हों (जिनमें शत्रुओं के छिपने की संभावना हो) उन सबका राजा मूलोच्‍छेद करा डाले और चैत्‍य ( देवालय संबंधी) वृक्षों को छोड़कर अन्‍य सभी छोटे-छोटे वृक्षों को कटवा दे। जो वृक्ष बढ़कर बहुत फैल गये हों, उनकी डालियां कटवा दे, परंतु देव संबंधी वृक्षों को सर्वथा सुरक्षित रहने दे। उनका एक पत्‍ता भी न गिरावे। नगर एवं दुर्ग के परकोटों पर शूरवीर रक्षा सैनिकों के बैठने के लिए स्‍थान बनावे, ऐसे स्‍थानो को प्रगण्‍डी कहते हैं, इन्‍हीं प्रगण्डियों की एक पाखवली दीवारों में बाहर की वस्‍तुओं को देखने के लिए छोट-छोटे छिद्र बनवावे, इन छिद्रो को ‘आकाशजननी’ कहते हैं (इनके द्वारा तोपों से गोलियां छोड़ी जाती हैं) इन सबका अच्‍छी तरह से निर्माण करावे। परकोटों के बाहर बनी हुई खाई में जल भरवा दे और उसमें त्रिशुलयुक्‍त खंभे गड़वा दे तथा मगरमच्‍छ और बड़े-बड़े़ मत्‍स्‍य भी डलवा दे। नगर में हवा आने-जाने के लिए परकोटों में संकरे दरवाजे बनावे और बड़े दरवाजों की भाँति उनकी भी सब प्रकार से रक्षा करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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