महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 250 श्लोक 18-25

पचाशदधिकद्विशततम (250) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पचाशदधिकद्विशततम श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद

जैसे पर्वत के शिखर पर खड़ा हुआ पुरुष धरती पर रहने वाले समस्‍त प्राणियों को सुस्‍पष्‍ट देखता है, उसी प्रकार तुमभी ज्ञानरूपी शैल शिखर पर आरूढ़ हो समस्‍त प्राणियों की अवस्‍था पर दृष्टिपात करो। क्रोध और हर्ष से रहित हो जाओ तथा बुद्धि की क्रूरता से भी रहित हो जाओ। ऐसा करने से तुम समस्‍त भूतोके उत्‍पत्ति और प्रलय को देख सकोगे। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ तत्‍वदर्शी ज्ञानी मुनि इस धर्म को समस्‍त प्राणियों के लिये सबसे श्रेष्‍ठ मानते हैं। बेटा! यह उपदेश व्‍यापक आत्‍मा का ज्ञान करानेवाला है। जो संयतचित्त, हितैषी और अनुगत भक्‍त हो, उसी के समक्ष इसका वर्णन करना चाहिये। यह गोपनीय आत्‍मज्ञान सबसे अधिक गुह्रातम और महान् है। तात! मैंने जिसका उपदेश किया है, वह यथार्थत: मेरे अपने प्रत्‍यक्ष अनुभव में लाया हुआ ज्ञान है। दु:ख और सुख से रहित तथा भूत, भविष्‍य एवं वर्तमानस्‍वरूप ब्रह्मा तो न स्‍त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। पुरुष हो या स्‍त्री, इस ब्रह्मा को जान ले तो उसका पुन: इस संसार में जन्‍म नहीं होता। अपुनर्भव स्थिति प्राप्‍त करने के लिये ही इस ब्रह्माज्ञानरूप धर्म का विधान किया गया है। बेटा! सारे विभिन्‍न मत जैसे रहे हैं, वैसे ही मेरे द्वारा तुम्‍हारे समक्ष यथार्थरूप से बताये गये है। जो इन मतों का अनुसरण करते हैं; वे मुक्‍त हो जाते हैं, जो नहीं करते हैं, वे नहीं होते। सत्‍पुत्र शुकदेव! प्रीतियुक्‍त, गुणवान् तथा इन्द्रियसंयमी पुत्र यदि प्रश्‍न करे तो पिता संतुष्‍टचित्त होकर उस जिज्ञासु पुत्र के समीप यथार्थरूप से इस ज्ञान का उपदेश करे, जो कुछ मैंने तुम्‍हारे निकट कहा है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्‍नविषयक दौ सो पचासवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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