पंचर्विंशत्यधिकद्विशततम (225) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचर्विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद
इंद्र ने कहा- कमलालये! देवताओं, मनुष्यों अथवा सम्पूर्ण प्राणियों में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है जो अकेला तुम्हारा भार सहन कर सके? लक्ष्मी ने कहा- पुरंदर! देवता, गन्धर्व, असुर और राक्षस कोई भी अकेला मेरा भार सहन नहीं कर सकता। इन्द्र ने कहा- शुभे! तुम जिस प्रकार मेरे निकट सदा निवास कर सको, वह उपाय मुझे बताओ। मैं तुम्हारी आज्ञा का यथार्थरूप से पालन करूँगा; क्योंकि तुम वह उपाय मुझे अवश्य बता सकती हो। लक्ष्मी ने कहा- देवेन्द्र! मैं जिस उपाय से तुम्हारे निकट सदा निवास कर सकूँगी, वह बताती हूँ, सुनो। तुम वेद में बतायी हुई विधि से मुझे चार भागों में विभक्त करो। इन्द्र ने कहा- लक्ष्मी! मैं शारीरिक बल और मानसिक शक्ति के अनुसार तुम्हें धारण करूँगा, किंतु तुम्हारे निकट कभी मेरा परित्याग न हो। मेरी यह धारणा है कि मनुष्यलोक में सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न करने वाली यह पृथ्वी ही सबको धारण करती है। वह तुम्हारे पैर का भार सह सकेगी; क्योंकि वह सामर्थ्य शालिनी है। लक्ष्मी ने कहा- इन्द्र! यह जो मेरा एक पैर पृथ्वी पर रखा हुआ है, इसे मैंने यहीं प्रतिष्ठित कर दिया। अब तुम मेरे दूसरे पैर को भी सुप्रतिष्ठित करो। इन्द्र ने कहा- लक्ष्मी! मनुष्यलोक में जल ही सब ओर प्रवाहित होता है; अत: वही तुम्हारे दूसरे पैर का भार सहन करे; क्योंकि जल इस कार्य के लिये पूर्ण समर्थ है। लक्ष्मी ने कहा- इन्द्र! लो, मैंने यह पैर जल में रख दिया। अब यह जल में ही सुप्रतिष्ठित है। अब तुम मेरे तीसरे पैर को भलीभाँति स्थापित करो। इन्द्र ने कहा- देवि! जिसमें वेद, यज्ञ और सम्पूर्ण देवता प्रतिष्ठित हैं। वे अग्निदेव तुम्हारे तीसरे पैर को अच्छी तरह धारण करेंगे। लक्ष्मी ने कहा- इन्द्र! यह तीसरा पाद मैने अग्नि में रख दिया। अब यह अग्नि में प्रतिष्ठित है। इसके बाद मेरे चौथे पाद को भलीभाँति स्थापित करों। इन्द्र बोले- देवि! मनुष्यों में जो ब्राह्मण भक्त और सत्यवादी श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे आपके चौथे पाद का भार वहन करें; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष उसे सहन करने में पूर्ण समर्थ हैं। लक्ष्मी ने कहा- इन्द्र! यह मैंने अपना चौथा पाद रखा। अब यह सत्पुरुषों में प्रतिष्ठित हुआ। इसी प्रकार तुम अब सम्पूर्ण भूतों में मुझे स्थापित करके सब ओर से मेरी रक्षा करो। इन्द्र ने कहा- देवि! मेरे द्वारा स्थापित की हुई आपको समस्त प्राणियों में से जो भी पीड़ा देगा, वह मेरे द्वारा दण्डनीय होगा। मेरी यह बात वे सब लोग सुन लें। तदनन्तर लक्ष्मी से परित्यक्त होकर दैत्यराज बलि ने कहा- ‘सूर्य जब तक पूर्व दिशा में प्रकाशित होंगे, तभी तक वे दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा को भी प्रकाशित करेंगे। ‘जब सूर्य केवल मध्याह्न काल में ही स्थित रहेंगे, अस्ताचल को नहीं जायँगे, उस समय पुन: देवासुर संग्राम होगा और उसमें मैं तुम सब देवताओं को परास्त करूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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